शादमा मुस्कान, दिल्ली
जब हम किसी समाज की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे ज़हन में सामाजिक न्याय का सवाल आता है कि कैसे समाज के विभिन्न वर्गों, समुदायों आदि में समानता लाई जाएं हमारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती दौर से ही सामाजिक न्याय के सवाल पर विचार किया गया | जो निचले तबके के लोगो है, समुदाय है, जो शूद्र जातियां हैं वो वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक लगातार एक बड़े भेद भाव का शिकार होती आई हैं इसलिए इस हाशिये के समाज को मुख्य धारा के समाज में लाने की कोशिश की है या की जा रही है | भारतीय संविधान के तहत आरक्षण दिया गया तथा एससी/एसटी ऐक्ट/ओबीसी ऐक्ट बनाया। महिलाओं के लिए आंदोलन चलाए गए। इस पर कई तरह की राजनीति हुई, बहस हुई, नारे (जिसका पल्ला जितना भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी) दिए गए और सामाजिक न्याय की अवधारणा को परिभाषित किया।
अब सवाल यह है कि जो शूद्र जातियां हैं उनको आरक्षण के तहत कितना फायदा मिला या कितनी जाति इसका लाभ उठा पाने में सक्षम है? अगर हम आकलन करने की कोशिश करें तो इन जातियों के अंदर भी कई तरह की जाति है, कास्ट है जिनके साथ जातीय तौर पर जातिगत भेदभाव होता रहा है। जिसे हम 'पूना पैकेट' के नाम से परिभाषित करते हैं। जो कई सालों से चला आ रहा है | हम इससे अनजान थे या बनने की कोशिश कर रहे थे? यह सवाल है क्योंकि अब आकर उत्तर प्रदेश इस जातीय समीकरण को समझ पाने में सक्षम हुआ है। वो सामाजिक न्याय पर राजनीति का दूसरा चरण शुरू करने जा रहा है।
उत्तर प्रदेश 'कोटा के भीतर कोटा' प्रावधान लाने की तैयारी में है जो लगभग लागू भी हो जायेगा। इस प्रावधान के तहत जो अन्य पिछड़ी जातियों को 27 आरक्षण दिया गया था उसे भी तीन श्रेणियों में बांटा गया है जिसमें 7% कुर्मी, यादव, आदि जैसी जातियों को 11% साहू, तेली, कुशवाह आदि और 9% राजभर जातियों को शामिल किया गया है। हुकुम सिंह समिति के अनुसार sc को भी दो भागों में विभाजित किया गया जिसके तहत पहली जाति को 10% और दूसरी जाति को 11% आरक्षण देने का प्रावधान है। इससे यह साफ़ है जो एक बड़ा तबका जो हाशिये पर है उसे लाभ होगा जो राजनीति के लिए बेहद अच्छा है। अगर यह उत्तर प्रदेश में लागू हो गया तो अन्य राज्य कैसे पीछे रहेंगे। हो गया ना सामाजिक न्याय का दूसरा चरण.. अब आरक्षण का यह नया प्रावधान किस तरह की राजनीति को जन्म देगा और वो राजनीतिक समीकरण किस नए समाज की व्यवस्था लाएगा।