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प्राकृतिक नियमो का उल्लंघन बंद करना होगा

 प्राकृतिक आपदा का मार्मिक चित्र 
पिछले कुछ वर्षो में दक्षिण एशिया के देशो ने लगातार बहुत गंभीर प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेला है| कभी भूकंप, तो कभी बाढ़, सुनामी और तूफान जैसी भयानक विपदाओं से दो-चार होना पड़ा है| यें आपदाएं तो जमीन के भीतर या जमीन पर उत्पन्न हुई है, और अगर हम कल्पना करे कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ओजोन परत में बने छिद्रों से आसमान पराबैंगनी किरणे बरसाने लगेगा, उस समय मानव जाति की रक्षा कौन करेगा? इन सभी आपदाओं के मूल में मनुष्यों के बहुत ही गंभीर कुकृत्य है और ये घटनाएं निकट भविष्य में आने वाली अन्य विपदाओं की प्रकृति द्वारा चेतावनी है| मनुष्य अपने भौतिक सुखों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उच्चतम दोहन कर रहा है| पेड़ो को काट कर कंक्रीट के जंगल बसायें जा रहे है, जंगलो को ख़त्म कर खेती के लिए उपयोग किया जा रहा है और जहाँ खेती होती थी वह नए शहर बनाएं जा रहे है|

मानव जाति ने आधुनिकता की दौड़ में दुसरो से आगे निकलने के लिए प्रकृति का बहुत नुकसान किया है| एक बहुत बड़े वैज्ञानिक ने यह नियम बताया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और अब प्रकृति ने अपनी प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है| जो जुल्म इंसानों ने प्रकृति पर किया है, उस का मूल्यांकन किया जायें तो ये आपदाएं मात्र शुरुआत दिखती है| आज बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना, जमीन को खोद कर उसमे रास्ते बना देना, नदियों का रास्ता रोक कर बिजली पैदा करना, पहाड़ो को तोड़कर समतल कर देना ही विकास की परिभाषा बन गयी है| केवल यहीं नहीं वैचारिक रूप से भी प्रकृति के नियमो का उल्लंघन हो रहा है| आज मनुष्यों का विचार भी दूषित हो गया है| रहन-सहन, खान-पान, कार्यशैली सभी चीजों में परिवर्तन हो रहा है, और अपने इस आधुनिक जीवन शैली की अवश्यकताओ की पूर्ति के लिए मनुष्य लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग कर रहा है| ये प्रकृति का रोष ही है कि वन्य जीवों की कई प्रजातियां समाप्त हो गयी है और कुछ समाप्त होने के कगार पर है| अगर इंसानों ने सही समय पर अपने इस आधुनिक जीवनशैली में परिवर्तन नही किया तो वह दिन ज्यादा दूर नही कि मनुष्य को अपनी भूख मिटाने के लिए दुसरे मनुष्यों का भक्षण करना पड़े| 

अभी भी समय है पेड़ो को संरक्षण प्रदान कर हम ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, वायु प्रदुषण एवं सूखा जैसी समस्याओं को कम करने का प्रयास सकते है| ग्रामीण उद्योग स्थापित कर शहरों की आवश्यकता को कम कर सकते है| प्रकृति का रोष कोई नही सह पाया है, हमारे इतिहासविदो एवं वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि प्रकृतिक आपदाओं के कारण मनुष्यों की कई प्रजातियां पूरी तरह से नष्ट हुई है| प्रकृति द्वारा दिए जा रहे संकेतो से मानव जाति को सतर्क हो जाना चाहिए और विकास की आड़ में मात्र आधुनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ईश्वर द्वारा व्यवस्थित प्राकृतिक नियम एवं प्रकृतिक संसाधनों का उल्लंघन एवं दोहन बंद करना होगा| यह वर्तमान समय एवं भविष्य कि मांग है कि मनुष्य को प्रकृति के साथ संतुलन बना कर ही चलना होगा|

लेखक : राहुल शुक्ल, 
आगरा, उत्तर प्रदेश