इंद्र्धनुष के समाये हें मुझमें सातों रंग
हर कली में ममता का श्रंगार करूंगी माँ।
बंद कली खिल जाने दे, नई सृष्टि रच जाने दे,
इस जग में आकर प्रकृति का उपहार बनूँगी माँ।
माँ तू अपना ही अस्तित्व मिटाने में लगी,
गुनहगार बन क्यूँ लिंगानुपात घटाने में लगी।
तेरे कलेजे का टुकड़ा हूँ, मैं तेरा ही तो मुखड़ा हूँ
आँगन में आकर तेरी पायल की झनकार बनूंगी माँ।
माँ तेरी ममता आज क्यूँ इस तरह बिखरने लगी
सारी इंसानियत तेरे इस कदम से सिहरने लगी.
बेशक तेरी कोख में बंद हूँ, पर मैं मुकम्मल छंद हूँ,
दुनियाँ में आकर रिश्तों का अलंकार बनूँगी माँ।
-डॉ० ह्रदेश चौधरी,
आगरा, उत्तर प्रदेश